ऊना/सुशील पंडित: भारत जैसे विकासशील देश में ऊर्जा की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए अक्षय ऊर्जा स्रोतों का उपयोग समय की आवश्यकता बन चुका है। इन्हीं प्रयासों के तहत देश भर में सौर ऊर्जा परियोजनाएं स्थापित की जा रही हैं। लेकिन जब कुटलैहड़ विस क्षेत्र की अगलौर सौर ऊर्जा कोई परियोजना स्थानीय विवादों और प्रशासनिक लापरवाही का शिकार बन जाए, तो इससे न सिर्फ आर्थिक नुकसान होता है, बल्कि देश की ऊर्जा सुरक्षा और निवेशकों के भरोसे पर भी असर पड़ता है।
ऐसा ही एक मामला है। कुटलैहड़ के अगलौर की 10 मेगावाट सौर परियोजना जो पिछले दो सप्ताह से रास्ता बंद होने की वजह से ठप पड़ी है। 68 करोड़ की लागत से बन रही 10 मेगावाट की यह सौर परियोजना क्षेत्रीय स्तर पर ऊर्जा की आवश्यकता को पूरा करने के साथ-साथ रोजगार के नए अवसर भी उत्पन्न कर रही थी। इस बड़ी परियोजना का उद्देश्य था स्वच्छ और सतत ऊर्जा का उत्पादन, जो पर्यावरण के अनुकूल होने के साथ-साथ देश की ऊर्जा आत्मनिर्भरता की दिशा में एक बड़ा कदम था। लेकिन जैसे ही इस परियोजना का काम शुरू हुआ, तब से लेकर आज तक रास्ते को लेकर विवाद खत्म नहीं हो सका है।
इस परियोजना की सबसे बड़ी चुनौती है रास्ते की उपलब्धता। बताया जा रहा है कि परियोजना के शुरू होते ही संबंधित रास्ते पर आसपास के कुछ ग्रामीण, विशेष रूप से किसान, आपत्ति जताते हैं और रास्ता बंद कर देते हैं। यह समस्या एक बार नहीं, बल्कि बार-बार उत्पन्न हुई है। राजस्व विभाग और प्रशासन द्वारा कई बार डिमार्केशन (सीमांकन) की प्रक्रिया भी कराई गई है, लेकिन हर बार यह प्रक्रिया स्थाई समाधान में बदलने में असफल रही है।
परियोजना अधिकारी देवराज सौंखला का कहना है कि रास्ते के बार-बार बंद होने से न केवल मटेरियल की आपूर्ति बाधित हो रही है, बल्कि वर्कर्स की आवाजाही भी रुक रही है। इससे प्रोजेक्ट की समय सीमा प्रभावित हो रही है और निर्माण कार्य में देरी हो रही है। इस देरी की वजह से अब तक इस प्लांट को करोड़ों रुपये का नुकसान हो चुका है, और अगर समय रहते समाधान नहीं निकला, तो नुकसान और भी बढ़ सकता है। यह सवाल भी खड़ा होता है कि जब यह समस्या बार-बार सामने आ रही है, तो प्रशासन स्थाई समाधान क्यों नहीं निकाल पा रहा? क्या यह प्रशासनिक उदासीनता है या फिर स्थानीय स्तर पर राजनीति की वजह से समाधान नहीं हो पा रहा? यह समझना जरूरी है कि जब कोई किसान बार-बार रास्ता बंद करता है, तो इसका असर केवल एक निजी प्रोजेक्ट पर नहीं, बल्कि पूरे क्षेत्र के विकास पर पड़ता है। बही ग्रामीणों का कहना है कि जिस रास्ते से प्लांट का सामान और कर्मचारी गुजरते हैं, वह रास्ता उनकी निजी जमीन से होकर जाता है। हालांकि कई बार सीमांकन कर यह स्पष्ट किया गया कि वह सार्वजनिक उपयोग का मार्ग है, फिर भी विरोध थमने का नाम नहीं ले रहा।
इससे यह स्पष्ट होता है कि किसानों की नाराजगी केवल रास्ते को लेकर नहीं, बल्कि जमीन अधिग्रहण, मुआवजा या अन्य प्रशासनिक प्रक्रिया को लेकर हो सकती है। यह भी जरूरी है कि उनकी समस्याओं को सुना जाए और उचित समाधान निकाला जाए। अब यह समय की मांग है कि प्रशासन इस मामले में त्वरित और ठोस कदम उठाए। डिमार्केशन की प्रक्रिया केवल कागजों तक सीमित न रह जाए, बल्कि जमीन पर लागू हो।
यदि रास्ता सार्वजनिक है, तो उसे कब्जा मुक्त किया जाए और यदि निजी है, तो वैकल्पिक मार्ग या उचित मुआवजे की व्यवस्था की जाए। परियोजना को चलाने वाले निवेशकों और कंपनियों को भी चाहिए कि वे ग्रामीणों के साथ संवाद बनाकर पारदर्शिता बरतें।यह परियोजना केवल बिजली उत्पादन तक सीमित नहीं है। इससे आसपास के इलाके में रोजगार, सड़क, जल और अन्य सुविधाओं का भी विकास होना संभावित है। ग्रामीणों को यह समझाया जाना चाहिए कि परियोजना उनके दीर्घकालीन हित में है। इसके लिए पंचायत, प्रशासन, कंपनी और ग्रामीणों के बीच एक त्रिपक्षीय बैठक की आवश्यकता है।रास्ता बंद होने जैसी समस्या किसी एक पक्ष की नहीं, पूरे समाज और क्षेत्र के विकास की बाधा है। यह जरूरी है कि सभी पक्षों की भागीदारी से एक स्थाई और न्यायसंगत समाधान निकाला जाए। प्रशासन को चाहिए कि वह निष्पक्ष होकर इस मुद्दे पर कार्रवाई करे ताकि सौर परियोजना समय पर पूरी हो सके और राष्ट्र निर्माण में अपनी भूमिका निभा सके।