सेहत: रेबीज एक ऐसी जानलेवा बीमारी है जो संक्रमित जानवर के काटने से फैलती है। यदि इस बीमारी में व्यक्ति को समय रहते इलाज न मिले तो मौत लगभग तय होती है। सालों से इसका उपचार बाहरी एंटीबॉडी और जटिल इंजेक्शनों पर निर्भर रहा है परंतु अब डॉक्टरों ने एक ऐसा ही रास्ता ढूंढ लिया है जिससे शरीर खुद अपनी एंटीबॉडी बनाने लग जाएगा। इस खोज से न सिर्फ इलाज आसान बनेगा बल्कि गरीब और दूर दराज वाले इलाकों में मरीजों की जान बचाने की उम्मीद भी बढ़ जाएगी।
ऐसा रहा सफर
यह एक वायरल बीमारी है जो संक्रमित कुत्ते, बिल्ली, बंदर या बाकी जानवर के काटने या खरोंचने से फैलती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, हर साल दुनिया में करीबन 59 हजार लोग इसकी चपेट में आकर अपनी जान गंवा देते हैं पर इनमें से ज्यादातर लोग एशिया और अफ्रीका के ग्रामीण क्षेत्रों में से ही होते हैं। भारत में भी यह बीमारी बड़ी स्वास्थ्य चुनौती के तौर पर साबित हुई है। इलाज के लिए अब तक बाहरी एंटीबॉडी इंजेक्शन के तौर पर दी जाती थी जो महंगी सीमित मात्रा में उपलब्ध और कई बार इसके साइड इफेक्ट्स भी होते थे।
एम्स गोरखपुर के फार्मोलॉजी विभाग के अध्यक्ष प्रो. हीरा भल्ला ने देश के कई नामी एक्सपर्ट्स के साथ मिलकर एक अनोखा अध्ययन किया है। इस शोध में ऐसी तकनीक विकसित हो गई है जिससे मरीज के शरीर में ही एंटीबॉडी बनने लगेगी। ऐसे में अब मरीज को बाहर से एंटीबॉडी इंजेक्शन की जरुरत नहीं पड़ेगी। यह तकनीक शरीर का इम्यून सिस्टम ऐसे ही एक्टिव करेगी। यह रेबीज वायरस के खिलाफ तुरंत प्रतिक्रिया देने और इंफेक्शन को फैलने से रोकेगी।
अभी तक रेबीज के गंभीर मामलों में मरीज को रेबीज इम्यूनग्लोब्युलिन दिया जाता था। यह अधिकतर घोड़े के खून से बनता था। इसकी तैयारी महंगी और जटिल होती थी। इसके साथ ही उपलब्धता भी इससे सीमित रहती थी। नई तकनीक के आने से अब इस प्रक्रिया की जरुरत खत्म होगी। इससे इलाज की लागत कम होगी और ग्रामीण व गरीब मरीजों को जल्द और सुलभ इलाज मिल पाएगा।
यदि यह तकनीक बड़े पैमाने पर सफल होगी तो रेबीज के इलाज में यह कोशिश एक नया मोड़ साबित होगी। इससे न सिर्फ मरीज की जान बचने की संभावना बढ़ेगी बल्कि समय और संसाधनों की बचत भी होगी। इसके अलावा वैक्सीन की डिलीवरी और भंडारण की दिक्कतें भी कम होगी।