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कांवड़ यात्रा के पीछे क्या है इतिहास, कैसे शुरू हुई थी यात्रा, जानें

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धर्मः सावन महीना शुरू हो चुका है और यह माह भगवान शिव को समर्पित है। सावन मास के आरंभ के साथ शिव भक्त कांवड़ यात्रा पर निकल जाते हैं। कांवड़ यात्रा एक प्राचीन हिंदू तीर्थयात्रा है, जिसमें श्रद्धालु गंगाजल लेकर भगवान शिव का जल अभिषेक करने के लिए यह यात्रा करते हैं। माना जाता है कि भोलेनाथ इन कांवड़ियों की सभी मनोकामनाएं पूरी कर देते हैं। हर साल सावन में जगह-जगह पर कांवड़ियों की भीड़ देखने को मिलती है।

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, कुछ विद्वानों का मानना हैं कि भगवान परशुराम ने सबसे पहले कांवड़ यात्रा की थी। वे गढ़मुक्तेश्वर से गंगाजल लाकर बागपत स्थित पुरा महादेव मंदिर में शिव का अभिषेक करने पहुंचे थे। ऐसी भी मान्यता है कि कांवड़ यात्रा की शुरूआत भगवान राम ने की थी। कहा जाता है कि भगवान राम ने बिहार के सुल्तानगंज से गंगाजल भरकर देवघर स्थित बाबा बैद्यनाथ धाम में शिवलिंग का जलाभिषेक किया था।

कुछ विद्वानों का मानना है कि कांवड़ यात्रा का प्रारंभ श्रवण कुमार ने त्रेता युग में किया था। उन्होंने अपने अंधे माता पिता को कांवड़ में बैठाकर तीर्थयात्रा कराई थी और हरिद्वार में गंगा स्नान भी कराया था। साथ ही वह अपने साथ गंगाजल भी लेकर आए थे।

पौराणिक मान्यता के अनुसार, समुद्र मंथन से निकलने के बाद भगवान शिव ने विष को पीया था जिससे उनका कंठ नीला हो गया था। तब रावण ने कांवड़ में जल भरकर ‘पुरा महादेव’ पहुंचें और शिवजी का जलाभिषेक किया था। उसी समय से कांवड़ यात्रा की परंपरा शुरू हुई।

वहीं मान्यता के अनुसारा, जब भगवान शिव ने समुद्र मंथन से निकलकर विष पिया था, तो देवताओं ने शिव जी के ताप को शांत करने के लिए पवित्र नदियों का जल उन पर चढ़ाया था। उसी समय से कांवड़ यात्रा शुरू हुई थी।

पौराणिक कथा के मुताबिक, कांवड़ को कंधे पर उठाना सिर्फ एक परंपरा नहीं, बल्कि श्रद्धा और सेवा का प्रतीक है। श्रवण कुमार ने अपने माता-पिता को कांवड़ में बिठाकर अपने कंधे पर उठाया था, जो सेवा भाव का प्रतीक है और श्री राम ने गंगाजल से अपने पिता दशरथ की मोक्ष के लिए कांवड़ उठाई थी। माना जाता है कि कांवड़ को कंधे पर उठाकर चलना अपने अहंकार को त्यागने का प्रतीक है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, कंधे पर कांवड़ रखकर गंगाजल लाने से सारे पाप खत्म हो जाते हैं और मोक्ष की प्राप्ति होती है।

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